New Delhi, 22 सितंबर . हिंदी साहित्य में कुछ रचनाकार ऐसे होते हैं, जिनकी लेखनी कविता, नाटक, व्यंग्य और बाल साहित्य के रंगों को एक साथ समेट लेती है. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ऐसी ही एक शख्सियत थे, जिनकी रचनाओं में शब्दों के साथ-साथ संवेदना, अनुभव और समाज की नब्ज़ थामने की ताकत थी.
15 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती में जन्मे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने छोटे कस्बे से निकलकर हिंदी साहित्य में अपनी अमिट छाप छोड़ी. बस्ती में प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने बनारस के क्वींस कॉलेज से इंटरमीडिएट और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया. इलाहाबाद में ही साहित्यिक माहौल ने उनकी लेखनी को नई दिशा दी.
करियर की शुरुआत में उन्होंने एजी ऑफिस में डिस्पैचर की नौकरी की, लेकिन रचनात्मकता उनकी रगों में थी. दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो के हिंदी समाचार विभाग में सहायक संपादक बने, फिर भी उनका मन साहित्य में ही रमा.
1964 में ‘अज्ञेय’ के आग्रह पर वे ‘दिनमान’ पत्रिका से जुड़े. यहां उनके स्तंभ ‘चरचे और चरखे’ ने व्यंग्य और सामाजिक टिप्पणी के अनूठे अंदाज़ से पाठकों का दिल जीता.
सर्वेश्वर की कविताएं ‘नई कविता’ आंदोलन का हिस्सा बनीं और ‘तीसरा सप्तक’ में शामिल हुईं. उनकी रचनाएं प्रेम, पीड़ा और सामाजिक-Political मुद्दों को बखूबी उकेरती थीं. ‘तुम्हारे साथ रहकर…’ जैसी कविताएं आज भी पाठकों को भावुक करती हैं.
उनके नाटक ‘बकरी’ ने तीखे Political व्यंग्य से आपातकाल में Government को असहज कर दिया, जिसके चलते इसे प्रतिबंधित किया गया. ‘अब गरीबी हटाओ,’ ‘हवालात,’ और ‘लड़ाई’ जैसे नाटकों ने मंच को जीवंत किया.
बाल साहित्य में भी सर्वेश्वर का योगदान अनमोल रहा. ‘बतूता का जूता’ और ‘महंगू की टाई’ जैसी रचनाएं बच्चों की किताबों में आज भी शामिल हैं. 1982 में वे ‘पराग’ पत्रिका के संपादक बने और अंत तक इससे जुड़े रहे. 1983 में कविता संग्रह ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला.
23 सितंबर 1983 को सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का निधन हो गया. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य की धरोहर हैं, जो समाज को आईना दिखाती रहेंगी.
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एकेएस/डीएससी
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