नेपाल के राणा राजवंश के संस्थापक वीर नरसिंह कुंवर को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम, 1857 में अंग्रेजों का साथ देकर अवध में क्रांति को कुचलने के लिए खलनायक माना जाता है। उन्होंने सैन्य सहायता देकर अंग्रेजों को वह जीत दिलाई, जब वे बेगम हजरतमहल के नेतृत्व में अवध में अपनी सत्ता वापस पाने में संघर्ष कर रहे थे। कुंवर सिंह ने राणा को रोकने की कोशिश की और उन्हें अवध का साथ देने पर गोरखपुर की जागीर और खजाने का हिस्सा देने का प्रस्ताव दिया, लेकिन राणा ने अंग्रेजों का साथ देने का फैसला किया। 23 फरवरी, 1858 को राणा ने अपनी सेना को नेपाल सीमा पर रोकने और मौलवी अहमदुल्ला शाह को लखनऊ की ओर बढ़ने का आदेश दिया।
हालांकि, अंग्रेजों के वफादारों ने मौलवी को बेगम के खिलाफ भड़का दिया। 14 मार्च, 1858 को राणा की सेना रात के अंधेरे में लखनऊ पहुंची और अंग्रेजों से मिल गई, जिससे लखनऊ का पतन तय हो गया। 16 मार्च, 1858 को बेगम हजरतमहल को अपमानजनक शर्तें मानकर नेपाल में शरण लेनी पड़ी, जहां राणा ने उनका शोषण किया और उन्हें धमकी दी। अंततः बेगम को अपना शेष जीवन राणा की शरण में बिताना पड़ा, लेकिन अवध ने कभी भी राणा का आभार नहीं माना।
नेपाल में नायक और खलनायक दोनों मानते हैं
वीर नरसिंह कुंवर, जिन्हें नेपाल में नायक और खलनायक दोनों माना जाता है, ने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ इतिहासकार उन्हें नेपाल के आधुनिकीकरण का श्रेय देते हैं, जबकि अन्य उन्हें तानाशाही के दौर का दोषी ठहराते हैं। लेकिन भारत में, खासकर अवध में, उनकी छवि एक खलनायक की है। इसका मुख्य कारण 1857 के विद्रोह के दौरान उनका अंग्रेजों का साथ देना था।
उस समय, अवध में बेगम हजरतमहल के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम जोर पकड़ रहा था। लखनऊ में अंग्रेजों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। बेगम हजरतमहल और उनके बेटे बिरजिस कदर की हुकूमत मजबूत हो रही थी। ऐसे नाजुक मोड़ पर, जब अंग्रेज अवध में अपनी खोई हुई सत्ता वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन्होंने नेपाल के राणा से सैन्य सहायता मांगी।
राणा को अंग्रेजों का साथ देने से रोकने की पूरी कोशिश
स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता, बिहार के कुंवर सिंह, ने राणा को अंग्रेजों का साथ देने से रोकने की पूरी कोशिश की। उन्होंने राणा से संपर्क साधा और उन्हें अवध का पक्ष लेने के लिए लुभाने की कोशिश की। कुंवर सिंह ने राणा से वादा किया कि अगर वे बेगम की मदद करते हैं, तो उन्हें अवध के खजाने का छह आने (लगभग 37 प्रतिशत) हिस्सा और गोरखपुर की जागीर मिलेगी। बाद में, बेगम हजरतमहल ने भी अपनी ओर से एक नया प्रस्ताव भेजा, जिसमें उन्होंने राणा को आजमगढ़ से बनारस तक की जागीर देने की पेशकश की।
लेकिन राणा वीर नरसिंह कुंवर ने इन प्रस्तावों को अनसुना कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों का साथ देने का फैसला किया। 23 फरवरी, 1858 को, राणा ने अपने नेपाल सीमा के जागीरदारों को आदेश दिया कि वे अपनी सेना को वहीं रोकें। साथ ही, उन्होंने फौलादी शेर कहे जाने वाले मौलवी अहमदुल्ला शाह को भी अपनी सेना के साथ लखनऊ की ओर बढ़ने का निर्देश दिया।
अहमदुल्ला शाह को बेगम हजरतमहल के खिलाफ भड़काया
हालांकि, अंग्रेजों के कुछ वफादारों ने चालाकी से मौलवी अहमदुल्ला शाह को बेगम हजरतमहल के खिलाफ भड़का दिया। उन्होंने मौलवी को यह कहकर गुमराह किया कि बेगम उन्हें कहीं और उलझाकर लखनऊ में अपना और अपने बेटे का एकाधिकार स्थापित करना चाहती हैं। इस धोखे के कारण, मौलवी अहमदुल्ला शाह ने वह कदम नहीं उठाया जो शायद क्रांति के लिए फायदेमंद होता।
नतीजतन, 14 मार्च, 1858 की रात को, राणा की सेना ने अंधेरे का फायदा उठाया। 2870 घुड़सवारों और दस हजार से ज्यादा पैदल सैनिकों वाली यह सेना जंगलों और झाड़ियों के रास्ते आगे बढ़ी। उन्होंने बेगम हजरतमहल की सारी सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए दिलकुशा के पास डेरा डाला। यह वही जगह थी जहां अंग्रेजों की सेना लखनऊ को घेरे खड़ी थी।
लखनऊ का पतन निश्चित हो गया
राणा की सेना के अंग्रेजों से मिलते ही लखनऊ का पतन निश्चित हो गया। 16 मार्च, 1858 को, बेगम हजरतमहल को कई अपमानजनक शर्तें माननी पड़ीं। उन्हें राणा के नेपाल में शरण लेनी पड़ी। राणा ने न केवल उनसे भरपूर धन ऐंठा, बल्कि उन्हें धमकाया भी। उन्होंने कहा कि अगर वे उनकी बात नहीं मानेंगी, तो "उधर से अंग्रेज मारेंगे और इधर से हम।"
अंततः, बेगम हजरतमहल को अपना बाकी जीवन राणा की शरण में ही बिताना पड़ा। लेकिन अवध की जनता ने राणा के इस विश्वासघात को कभी नहीं भुलाया और न ही उन्होंने इसके लिए राणा का आभार व्यक्त किया। अवध के लोग राणा को हमेशा एक खलनायक के रूप में ही याद करते हैं, जिसने उनकी स्वतंत्रता की लड़ाई को कुचलने में अंग्रेजों की मदद की थी।
हालांकि, अंग्रेजों के वफादारों ने मौलवी को बेगम के खिलाफ भड़का दिया। 14 मार्च, 1858 को राणा की सेना रात के अंधेरे में लखनऊ पहुंची और अंग्रेजों से मिल गई, जिससे लखनऊ का पतन तय हो गया। 16 मार्च, 1858 को बेगम हजरतमहल को अपमानजनक शर्तें मानकर नेपाल में शरण लेनी पड़ी, जहां राणा ने उनका शोषण किया और उन्हें धमकी दी। अंततः बेगम को अपना शेष जीवन राणा की शरण में बिताना पड़ा, लेकिन अवध ने कभी भी राणा का आभार नहीं माना।
नेपाल में नायक और खलनायक दोनों मानते हैं
वीर नरसिंह कुंवर, जिन्हें नेपाल में नायक और खलनायक दोनों माना जाता है, ने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ इतिहासकार उन्हें नेपाल के आधुनिकीकरण का श्रेय देते हैं, जबकि अन्य उन्हें तानाशाही के दौर का दोषी ठहराते हैं। लेकिन भारत में, खासकर अवध में, उनकी छवि एक खलनायक की है। इसका मुख्य कारण 1857 के विद्रोह के दौरान उनका अंग्रेजों का साथ देना था।
उस समय, अवध में बेगम हजरतमहल के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम जोर पकड़ रहा था। लखनऊ में अंग्रेजों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। बेगम हजरतमहल और उनके बेटे बिरजिस कदर की हुकूमत मजबूत हो रही थी। ऐसे नाजुक मोड़ पर, जब अंग्रेज अवध में अपनी खोई हुई सत्ता वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन्होंने नेपाल के राणा से सैन्य सहायता मांगी।
राणा को अंग्रेजों का साथ देने से रोकने की पूरी कोशिश
स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता, बिहार के कुंवर सिंह, ने राणा को अंग्रेजों का साथ देने से रोकने की पूरी कोशिश की। उन्होंने राणा से संपर्क साधा और उन्हें अवध का पक्ष लेने के लिए लुभाने की कोशिश की। कुंवर सिंह ने राणा से वादा किया कि अगर वे बेगम की मदद करते हैं, तो उन्हें अवध के खजाने का छह आने (लगभग 37 प्रतिशत) हिस्सा और गोरखपुर की जागीर मिलेगी। बाद में, बेगम हजरतमहल ने भी अपनी ओर से एक नया प्रस्ताव भेजा, जिसमें उन्होंने राणा को आजमगढ़ से बनारस तक की जागीर देने की पेशकश की।
लेकिन राणा वीर नरसिंह कुंवर ने इन प्रस्तावों को अनसुना कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों का साथ देने का फैसला किया। 23 फरवरी, 1858 को, राणा ने अपने नेपाल सीमा के जागीरदारों को आदेश दिया कि वे अपनी सेना को वहीं रोकें। साथ ही, उन्होंने फौलादी शेर कहे जाने वाले मौलवी अहमदुल्ला शाह को भी अपनी सेना के साथ लखनऊ की ओर बढ़ने का निर्देश दिया।
अहमदुल्ला शाह को बेगम हजरतमहल के खिलाफ भड़काया
हालांकि, अंग्रेजों के कुछ वफादारों ने चालाकी से मौलवी अहमदुल्ला शाह को बेगम हजरतमहल के खिलाफ भड़का दिया। उन्होंने मौलवी को यह कहकर गुमराह किया कि बेगम उन्हें कहीं और उलझाकर लखनऊ में अपना और अपने बेटे का एकाधिकार स्थापित करना चाहती हैं। इस धोखे के कारण, मौलवी अहमदुल्ला शाह ने वह कदम नहीं उठाया जो शायद क्रांति के लिए फायदेमंद होता।
नतीजतन, 14 मार्च, 1858 की रात को, राणा की सेना ने अंधेरे का फायदा उठाया। 2870 घुड़सवारों और दस हजार से ज्यादा पैदल सैनिकों वाली यह सेना जंगलों और झाड़ियों के रास्ते आगे बढ़ी। उन्होंने बेगम हजरतमहल की सारी सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए दिलकुशा के पास डेरा डाला। यह वही जगह थी जहां अंग्रेजों की सेना लखनऊ को घेरे खड़ी थी।
लखनऊ का पतन निश्चित हो गया
राणा की सेना के अंग्रेजों से मिलते ही लखनऊ का पतन निश्चित हो गया। 16 मार्च, 1858 को, बेगम हजरतमहल को कई अपमानजनक शर्तें माननी पड़ीं। उन्हें राणा के नेपाल में शरण लेनी पड़ी। राणा ने न केवल उनसे भरपूर धन ऐंठा, बल्कि उन्हें धमकाया भी। उन्होंने कहा कि अगर वे उनकी बात नहीं मानेंगी, तो "उधर से अंग्रेज मारेंगे और इधर से हम।"
अंततः, बेगम हजरतमहल को अपना बाकी जीवन राणा की शरण में ही बिताना पड़ा। लेकिन अवध की जनता ने राणा के इस विश्वासघात को कभी नहीं भुलाया और न ही उन्होंने इसके लिए राणा का आभार व्यक्त किया। अवध के लोग राणा को हमेशा एक खलनायक के रूप में ही याद करते हैं, जिसने उनकी स्वतंत्रता की लड़ाई को कुचलने में अंग्रेजों की मदद की थी।
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