नई दिल्ली: भारत में बुजुर्गों की बढ़ती आबादी गंभीर सामाजिक और आर्थिक हकीकत है। देश में 60 साल और उससे ज्यादा उम्र के करीब 15 करोड़ लोग हैं। यह संख्या रूस की पूरी आबादी के बराबर है। भारत की कुल आबादी का यह एक बड़ा हिस्सा है। आने वाले सालों में यह और बढ़ेगा। 2036 तक इसी आंकड़े के 23 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अध्ययन के अनुसार, 2050 तक भारत की आबादी में बुजुर्गों का हिस्सा बढ़कर 19.5% हो जाएगा यानी करीब 31.9 करोड़ लोग। अगर 45 साल और उससे ज्यादा उम्र के लोगों को भी इसमें शामिल कर लें तो 2050 तक वे आबादी का लगभग 40% यानी करीब 65.5 करोड़ लोग होंगे। यह एक बहुत बड़ा जनसांख्यिकीय बदलाव है।
इस बढ़ती बुजुर्ग आबादी के साथ कई चुनौतियां भी जुड़ी हुई हैं। सबसे बड़ी चिंता स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर है। भारत में केवल पांच में से एक बुजुर्ग के पास स्वास्थ्य बीमा है। इसका मतलब है कि ज्यादातर बुजुर्ग अपनी स्वास्थ्य जरूरतों के लिए खुद पैसे का इंतजाम करते हैं या दूसरों पर निर्भर रहते हैं। आर्थिक रूप से भी लगभग 70% बुजुर्ग अपने रोजमर्रा के खर्चों के लिए परिवार के सदस्यों या अपनी मामूली पेंशन पर निर्भर हैं। यह उनकी आर्थिक असुरक्षा को दर्शाता है।
बहुत बड़ा है ये मार्केट
इसके बावजूद भारत की 'सिल्वर इकोनॉमी' यानी बुजुर्गों की ओर से इस्तेमाल की जाने वाली चीजों और सेवाओं का बाजार बहुत बड़ा है। पिछले साल जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, यह बाजार पहले से ही 73,000 करोड़ रुपये का है। आने वाले सालों में इसके कई गुना बढ़ने की उम्मीद है। यह दिखाता है कि बुजुर्गों की जरूरतें और उनकी खरीदने की क्षमता अगर सही तरीके से पूरी की जाए तो अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा अवसर बन सकती है।
भारत ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है जहां उसकी बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है। यह बढ़ती आबादी देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक शक्तिशाली विकास इंजन बन सकती है या फिर परिवारों और सार्वजनिक कल्याण प्रणालियों पर भारी बोझ। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि देश इस स्थिति से कैसे निपटता है।
बुजुर्गों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कई कंपनियां उनके लिए नए और अनोखे उत्पाद और सेवाएं पेश कर रही हैं। भारत की एक बड़ी एफएमसीजी कंपनी आईटीसी ने पिछले साल 'राइट शिफ्ट' नाम से खास प्रोडक्ट रेंज शुरू की है। उसने प्रोडक्ट इनोवेशन के लिए 'Ctrl+Alt+Delete' जैसा तरीका अपनाया। इसमें सोडियम और सैचुरेटेड फैट जैसे तत्वों को कंट्रोल(Ctrl) किया। स्वस्थ विकल्पों की तलाश (Alt) की । उदाहरण के लिए चीनी की जगह गुड़, सफेद नमक की जगह गुलाबी नमक, प्रोसेस्ड अनाज की जगह साबुत अनाज का इस्तेमाल किया। प्रिजर्वेटिव, आर्टिफिशियल कलर और आर्टिफिशियल टेस्ट (Delete)को हटा दिया। यह दिखाता है कि कंपनियां बुजुर्गों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को समझकर अपने उत्पादों में बदलाव ला रही हैं।
डेलॉइट इंडिया की अर्थशास्त्री रुमकी मजूमदार ने ईटी को बताया कि भारत का बहु-अरब डॉलर का सीनियर केयर (बुजुर्गों की देखभाल) बाजार रियल एस्टेट, स्वास्थ्य सेवा, मनोरंजन, वित्तीय सेवाओं आदि में महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। बशर्ते कि एक 'एज-फ्रेंडली' (उम्र के अनुकूल) इकोसिस्टम विकसित किया जाए।
रियल एस्टेट कंसल्टेंसी एनेरॉक के चेयरमैन अनुज पुरी का कहना है कि भारत में सीनियर लिविंग का बाजार चौंकाने वाले तौर पर अपर्याप्त है। यह मार्केट मुश्किल से 1% है। वहीं, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे बाजारों में यह लगभग 6% है। उनका अनुमान है कि 2030 तक यह क्षेत्र 64,500 करोड़ रुपये का बाजार बन सकता है। इसमें अगले पांच सालों में लगभग 23 लाख सीनियर लिविंग यूनिट्स की मांग होगी।
स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च सबसे बड़ा टेंशन
हालांकि, वह चेतावनी देते हैं कि सीनियर लिविंग कोई पारंपरिक रियल एस्टेट का खेल नहीं है। पुरी कहते हैं, 'ज्यादातर नियमित हाउसिंग प्रोजेक्ट की स्थितियों के उलट सीनियर लिविंग प्रोजेक्ट के बिल्डर को प्रोजेक्ट के पूरे लाइफसाइकिल में गहराई से शामिल रहना पड़ता है। इसमें विशेषज्ञ स्वास्थ्य एजेंसियों के साथ साझेदारी भी शामिल है। , वहीं, रेगुलर प्रोजेक्ट्स में डेवलपर की जिम्मेदारी हाउसिंग सोसाइटी सौंपने के बाद समाप्त हो जाती है।'
पुरी बताते हैं कि यह क्षेत्र अभी भी अपने शुरुआती चरण में है। इसमें लगभग 15 डेवलपर जैसे परंजपे स्कीम्स, अंशल एपीआई, ब्रिगेड ग्रुप और आशियाना हाउसिंग सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। दक्षिणी राज्य, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में बुजुर्गों की आबादी का हिस्सा ज्यादा है। यह अंतर 2036 तक और बढ़ने की उम्मीद है। केरल में अनुमान है कि 2036 तक वहां के हर चार निवासियों में से एक बुजुर्ग होगा।
बुजुर्गों में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च वित्तीय तनाव का प्रमुख स्रोत बना हुआ है। यह शहरी क्षेत्रों में बुजुर्गों के बीच कर्ज का 26% है। कम से कम एक बुजुर्ग सदस्य वाले परिवारों की प्रति व्यक्ति मासिक आय उन परिवारों की तुलना में कम है जिनमें कोई बुजुर्ग सदस्य नहीं है (3,568 रुपये बनाम 4,098 रुपये), जो उम्रदराज परिवारों के आर्थिक खतरे को दिखाता है।
यह स्थिति एक साफ तस्वीर पेश करती है। जहां बढ़ती बुजुर्ग आबादी में नए बाजारों और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की क्षमता है। वहीं, अगर सहायक ढांचे तालमेल बैठाने में विफल रहते हैं तो यह परिवारों और सामाजिक कल्याण प्रणाली पर भारी बोझ भी बन सकती है।
इस बढ़ती बुजुर्ग आबादी के साथ कई चुनौतियां भी जुड़ी हुई हैं। सबसे बड़ी चिंता स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर है। भारत में केवल पांच में से एक बुजुर्ग के पास स्वास्थ्य बीमा है। इसका मतलब है कि ज्यादातर बुजुर्ग अपनी स्वास्थ्य जरूरतों के लिए खुद पैसे का इंतजाम करते हैं या दूसरों पर निर्भर रहते हैं। आर्थिक रूप से भी लगभग 70% बुजुर्ग अपने रोजमर्रा के खर्चों के लिए परिवार के सदस्यों या अपनी मामूली पेंशन पर निर्भर हैं। यह उनकी आर्थिक असुरक्षा को दर्शाता है।
बहुत बड़ा है ये मार्केट
इसके बावजूद भारत की 'सिल्वर इकोनॉमी' यानी बुजुर्गों की ओर से इस्तेमाल की जाने वाली चीजों और सेवाओं का बाजार बहुत बड़ा है। पिछले साल जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, यह बाजार पहले से ही 73,000 करोड़ रुपये का है। आने वाले सालों में इसके कई गुना बढ़ने की उम्मीद है। यह दिखाता है कि बुजुर्गों की जरूरतें और उनकी खरीदने की क्षमता अगर सही तरीके से पूरी की जाए तो अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा अवसर बन सकती है।
भारत ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है जहां उसकी बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है। यह बढ़ती आबादी देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक शक्तिशाली विकास इंजन बन सकती है या फिर परिवारों और सार्वजनिक कल्याण प्रणालियों पर भारी बोझ। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि देश इस स्थिति से कैसे निपटता है।
बुजुर्गों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कई कंपनियां उनके लिए नए और अनोखे उत्पाद और सेवाएं पेश कर रही हैं। भारत की एक बड़ी एफएमसीजी कंपनी आईटीसी ने पिछले साल 'राइट शिफ्ट' नाम से खास प्रोडक्ट रेंज शुरू की है। उसने प्रोडक्ट इनोवेशन के लिए 'Ctrl+Alt+Delete' जैसा तरीका अपनाया। इसमें सोडियम और सैचुरेटेड फैट जैसे तत्वों को कंट्रोल(Ctrl) किया। स्वस्थ विकल्पों की तलाश (Alt) की । उदाहरण के लिए चीनी की जगह गुड़, सफेद नमक की जगह गुलाबी नमक, प्रोसेस्ड अनाज की जगह साबुत अनाज का इस्तेमाल किया। प्रिजर्वेटिव, आर्टिफिशियल कलर और आर्टिफिशियल टेस्ट (Delete)को हटा दिया। यह दिखाता है कि कंपनियां बुजुर्गों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को समझकर अपने उत्पादों में बदलाव ला रही हैं।
डेलॉइट इंडिया की अर्थशास्त्री रुमकी मजूमदार ने ईटी को बताया कि भारत का बहु-अरब डॉलर का सीनियर केयर (बुजुर्गों की देखभाल) बाजार रियल एस्टेट, स्वास्थ्य सेवा, मनोरंजन, वित्तीय सेवाओं आदि में महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। बशर्ते कि एक 'एज-फ्रेंडली' (उम्र के अनुकूल) इकोसिस्टम विकसित किया जाए।
रियल एस्टेट कंसल्टेंसी एनेरॉक के चेयरमैन अनुज पुरी का कहना है कि भारत में सीनियर लिविंग का बाजार चौंकाने वाले तौर पर अपर्याप्त है। यह मार्केट मुश्किल से 1% है। वहीं, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे बाजारों में यह लगभग 6% है। उनका अनुमान है कि 2030 तक यह क्षेत्र 64,500 करोड़ रुपये का बाजार बन सकता है। इसमें अगले पांच सालों में लगभग 23 लाख सीनियर लिविंग यूनिट्स की मांग होगी।
स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च सबसे बड़ा टेंशन
हालांकि, वह चेतावनी देते हैं कि सीनियर लिविंग कोई पारंपरिक रियल एस्टेट का खेल नहीं है। पुरी कहते हैं, 'ज्यादातर नियमित हाउसिंग प्रोजेक्ट की स्थितियों के उलट सीनियर लिविंग प्रोजेक्ट के बिल्डर को प्रोजेक्ट के पूरे लाइफसाइकिल में गहराई से शामिल रहना पड़ता है। इसमें विशेषज्ञ स्वास्थ्य एजेंसियों के साथ साझेदारी भी शामिल है। , वहीं, रेगुलर प्रोजेक्ट्स में डेवलपर की जिम्मेदारी हाउसिंग सोसाइटी सौंपने के बाद समाप्त हो जाती है।'
पुरी बताते हैं कि यह क्षेत्र अभी भी अपने शुरुआती चरण में है। इसमें लगभग 15 डेवलपर जैसे परंजपे स्कीम्स, अंशल एपीआई, ब्रिगेड ग्रुप और आशियाना हाउसिंग सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। दक्षिणी राज्य, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में बुजुर्गों की आबादी का हिस्सा ज्यादा है। यह अंतर 2036 तक और बढ़ने की उम्मीद है। केरल में अनुमान है कि 2036 तक वहां के हर चार निवासियों में से एक बुजुर्ग होगा।
बुजुर्गों में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च वित्तीय तनाव का प्रमुख स्रोत बना हुआ है। यह शहरी क्षेत्रों में बुजुर्गों के बीच कर्ज का 26% है। कम से कम एक बुजुर्ग सदस्य वाले परिवारों की प्रति व्यक्ति मासिक आय उन परिवारों की तुलना में कम है जिनमें कोई बुजुर्ग सदस्य नहीं है (3,568 रुपये बनाम 4,098 रुपये), जो उम्रदराज परिवारों के आर्थिक खतरे को दिखाता है।
यह स्थिति एक साफ तस्वीर पेश करती है। जहां बढ़ती बुजुर्ग आबादी में नए बाजारों और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की क्षमता है। वहीं, अगर सहायक ढांचे तालमेल बैठाने में विफल रहते हैं तो यह परिवारों और सामाजिक कल्याण प्रणाली पर भारी बोझ भी बन सकती है।
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