कितने आदमी थे?'
'सरदार दो… लेकिन उनके कैमरे के आगे पूरी इंडस्ट्री ही नहीं, पूरी दुनिया झुक गई।”
‘जो डर गया, समझो मर गया’,
‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना’,
‘अब तेरा क्या होगा कालिया’,
'ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर'
ये डायलॉग्स सिर्फ सिनेमा के नहीं, हमारी संस्कृति और यादों का हिस्सा बन चुके हैं। इन अमर पलों के पीछे जिस शख्स की दृष्टि, सोच और जादू छुपा है, वो हैं, रमेश सिप्पी, वो फिल्ममेकर जिन्होंने ‘शोले’ से भारतीय सिनेमा को एक नई परिभाषा दी। बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी की नई इबारत लिखी। विभाजन की त्रासदी से लेकर सफलता की ऊंचाइयों तक, रमेश सिप्पी का सफर सिनेमा के बदलते दौर का साक्षी रहा है। तकनीक बदली, दर्शक बदले मगर 'शोले' का असर आज भी वैसा ही गहरा है। 'शोले' के हर किरदार को अजरामर करने वाले निर्देशक ने हर फ्रेम को इतिहास बनाया। और सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन नहीं, एक महाकाव्य में बदला। हाल ही में 'शोले' ने अपने पांच दशक पूरे किए, और इस मौके पर रमेश सिप्पी ने हमसे विस्तृत रूप से बात की, 'शोले' के सफर, महानायक की कास्टिंग, सिनेमा की कॉम्पलेक्सिटीज, कला की विरासत, नेशनल अवॉर्ड न मिलने के मलाल, AI की खूबियों -खामियों और भी कई मुद्दों पर दिल खोल कर बात की।
1. पचास साल में जब दो पीढ़ियां जवान होकर सेटल हो चुकी हैं, ऐसे में आज भी 'शोले' का जादू सर चढ़कर बोलता है। लेकिन क्या ये सच है कि जब फिल्म रिलीज हुई थी, तब शुरुआती दिनों में बॉक्स ऑफिस पर रिस्पॉन्स उम्मीद के मुताबिक नहीं था?
- (हल्की मुस्कान के साथ) नहीं… ऐसा सच नहीं था। बस कुछ अफवाहें फैली थीं। दर्शकों ने तो शुरुआत से ही फिल्म को अपनाया था, लेकिन ट्रेड के कुछ हलकों में बातें उठीं, वजह थी फिल्म का बजट। लोग कहने लगे, 'इतनी महंगी फिल्म बनेगी तो इंडस्ट्री बर्बाद हो जाएगी, इसका पैसा वापस आना नामुमकिन है।' असल में हमारी फिल्म का बजट एक करोड़ रुपये था और जब तक बनकर तैयार हुई, खर्च तीन करोड़ तक पहुंच गया था। जरा सोचिए, उन दिनों के हिसाब से ये बहुत बड़ी रकम थी। फिल्म बनाने में पूरे 300 दिन लगे, यानी तकरीबन एक साल। रिलीज के बाद पहला हफ्ता थोड़ा शांत रहा, दर्शकों की तरफ से कोई बड़ा रिएक्शन नहीं आया। दूसरे हफ्ते में एडवांस बुकिंग भी कमजोर रही।
ट्रेड वालों ने इसे पकड़कर अफवाह उड़ा दी, 'फिल्म नहीं चली।' उनका तर्क था, अगर फिल्म पसंद आती तो दर्शक दोबारा थिएटर में लौटते। लेकिन असलियत कुछ और ही थी। थिएटर मालिक खुद कह रहे थे, 'दूसरे हफ्ते में एडवांस बुकिंग नहीं होती, लोग सीधे करंट बुकिंग में टिकट लेते हैं।' और बिल्कुल वही हुआ। दूसरे हफ्ते से सिनेमा हॉल भरने लगे। तीसरे हफ्ते में लोग थिएटर में बैठकर डायलॉग रिपीट करने लगे, 'अरे ओ सांभा!' फिर वही अखबार, जिन्होंने शुरुआत में नकारात्मक बातें लिखी थीं, पांच हफ्ते बाद अपनी हेडलाइन बदल रहे थे, 'अब तक की सबसे बड़ी हिट!' उन्होंने अपनी गलती खुलेआम मानी। और यहीं से शुरू हुआ 'शोले' का वो सफर… जो आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है।
2. आज अमिताभ बच्चन इंडस्ट्री में ‘महानायक’ का दर्जा रखते हैं। लेकिन शोले में ‘जय’ के रोल के लिए उनकी कास्टिंग कैसे हुई थी?
-(मुस्कुराते हुए) देखिए, उस वक्त अमित जी उतने बड़े स्टार नहीं थे। उन्होंने 'आनंद' (1971) में बहुत शानदार काम किया था। वो एक बेहद सधा हुआ परफॉर्मेंस था। फिर 'बॉम्बे टू गोवा' में उनका एकदम मस्ती भरा, नाच-गाने वाला अंदाज दर्शकों को पसंद आया। लेकिन इसके बाद उनकी चार-पांच फिल्में लगातार फ्लॉप रहीं। उस समय तो यहां तक अफवाहें उड़ने लगीं कि उन पर कोई ‘जादू-टोना’ कर दिया गया है, तभी उनकी फिल्में नहीं चल रही हैं। जब 'सीता और गीता' की सक्सेस पार्टी चल रही थी, तो वहीं पर बातें शुरू हो गईं, 'इस लंबू को मत लेना।' लेकिन हमारे पास पहले ही तीन बड़े स्टॉलवार्ट थे- धरम जी, संजीव कुमार जी और हेमा मालिनी जी। साथ ही हमने जया भादुड़ी और अमजद खान को भी लिया। बाकी तो बस मेरा और राइटर का कन्विक्शन था कि ‘जय’ के किरदार के लिए अमित जी ही परफेक्ट रहेंगे। और वही हुआ। मेरा वो कन्विक्शन काम आया। बाकी तो आप जानते ही हैं…
3. आज तो सब जानते हैं कि 'शोले' के दौरान एक ओर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी का प्रेम प्रसंग चल रहा था, तो दूसरी ओर अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी की शादी हुई थी। उस वक्त सेट का माहौल कैसा था?
-(हल्की मुस्कान के साथ) देखिए, उस वक्त सेट पर काम ही सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। किसी भी स्टार ने कभी अपनी पर्सनल फीलिंग्स को शूटिंग के बीच में नहीं आने दिया। हां, ये सही है कि शूटिंग के बाद सभी अपने-अपने निजी समय में मिलते-जुलते रहे होंगे, लेकिन उसका फिल्म पर ज़रा भी असर नहीं पड़ा। सेट पर एकदम प्रोफेशनल माहौल रहता था। सभी कलाकार बहुत अनुशासन में काम करते थे। मैं जब भी किसी को सेट पर बुलाता, वो समय पर पहुंचते। धर्मेंद्र जी हों, अमित जी हों, सभी वक्त के पाबंद थे और अपना काम पूरे समर्पण से करते थे। इन प्रेम कहानियों की चर्चाएं बाहर जरूर होती थीं, लेकिन कैमरे के सामने सिर्फ किरदार जिंदा रहते थे, स्टार नहीं। शायद यही वजह थी कि फिल्म में कोई भी अड़चन नहीं आई और सेट का माहौल हमेशा खुशनुमा और प्रोफेशनल बना रहा।
4. आपकी फिल्म शोले इमरजेंसी के दौर में रिलीज़ हुई थी। उस वक्त सेंसर बोर्ड का रुख कैसा था?
-(गंभीर होकर) इमरजेंसी के दौरान पावर पूरी तरह से उनके हाथ में थी। तो हमें कुछ ऐसी बातें माननी पड़ीं, जो मैं व्यक्तिगत तौर पर नहीं मानना चाहता था। दरअसल, हमारी कहानी में संजीव कुमार का किरदार यानी ठाकुर अंत में अमजद खान के गब्बर को मार देता है। लेकिन सेंसर बोर्ड ने इसकी इजाजत नहीं दी। उनका कहना था ,'एक पुलिस अफसर अपने ही कानून के खिलाफ कैसे जा सकता है? उसके साथ कितना भी बुरा क्यों न हुआ हो, वह कानून अपने हाथ में नहीं ले सकता।' इसके अलावा कुछ वायलेंस के सीन भी सेंसर ने हटवा दिए। उस वक्त ये बहुत खला, क्योंकि वो दृश्य कहानी की भावनात्मक ताकत को बढ़ाते थे। लेकिन दिलचस्प बात ये रही कि इन कट्स के बावजूद फिल्म पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ा। दर्शकों ने फिल्म को उसी जुनून से अपनाया। और हां, मैं आपको ये भी बता दूं, वो सारे हटाए गए सीन अब फिल्म में दोबारा जोड़े जा रहे हैं। कुछ कहानियां वक्त के साथ और भी मजबूत होकर लौटती हैं।
5. 'शोले' को कई लोगों ने रीक्रिएट करने की कोशिश की। तो यहां तक कि 'रामगढ़ के शोले' ले आए। आप इसे कैसे देखते हैं?-
-देखिए, राम गोपाल वर्मा मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि वो 'रामगढ़ के शोले' बनाना चाहते हैं। मैंने उन्हें वही कहा, 'आपकी मर्जी, मैं आपको ये बनाने की सलाह नहीं दूंगा, मगर आपकी मर्जी।' मैंने कभी खुद इसका रीमेक बनाने की नहीं सोची। क्योंकि अगर मैं कभी बनाऊंगा, तो लोग सीधे तुलना करेंगे। लेकिन उन्होंने अपनी जिद और दृष्टि के साथ फिल्म बनाई, और फिर वही हुआ जो होना था। ठीक है, उनका अपना ख्याल था, उन्होंने किया, मैंने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की। लेकिन मैं खुद कभी ऐसा नहीं करूंगा। शोले जैसी फिल्म का अपना समय और अपने दर्शक होते हैं, और उसे दोबारा बनाने की कोशिश बस तुलना और जोखिम को जन्म देती है।
6. आपके करियर की बात करूं तो आपने 'अंदाज', 'सीता और गीता', 'शान', 'शक्ति', 'सागर' जैसी कई सफल फिल्में बनाईं, मगर आपके करियर की फिल्म 'शोले' ने हर किसी को ओवर पावर कर दिया, 'शोले' आपकी पहचान बन बैठी?
-अब मैं क्या करूं? मैंने अपनी हर फिल्म पर उतनी ही मेहनत की… मगर अब 'शोले' बन गई और बाकी नहीं बनी। फिर भी उन फिल्मों को भी दर्शकों ने पसंद किया। आज हम पचास साल बाद भी 'शोले' की बातें कर रहे हैं। ये कोई प्लानिंग नहीं थी कि फिल्म इतनी लंबी उम्र तक चलेगी। लेकिन जब ऐसा हुआ है, तो मैं दुखी तो नहीं हो सकता। (हंसते हुए) आज भी ताज्जुब होता है कि लोग फिल्म को इतनी पसंद करते हैं। जब लोग आज भी 'शोले' देखते हैं और दोबारा देखने की इच्छा रखते हैं, तो मुझे ये सबसे बड़ा कॉम्प्लिमेंट लगता है। ये साबित करता है कि फिल्म सिर्फ एक समय की नहीं, बल्कि पीढ़ियों के बीच अपनी जगह बनाने में कामयाब हुई है।
7. आज के तमाम दृश्य और डायलॉग्स लोगों के लिए आइकॉनिक बन चुके हैं। मगर पूरी फिल्म में आपके लिए कौन-सा सीन ऐसा था जिसने आपको सच में झकझोरा?
-कई सीन हैं, सबसे पहला सीन जो मुझे हमेशा याद रहेगा, वो वही है जब गब्बर आकर ठाकुर के पूरे परिवार का कत्ले-आम कर देता है। और उसके बाद जब ठाकुर गब्बर की डेन में जाता है, और उसके दोनों हाथ काट दिए जाते हैं। वह दृश्य हमेशा मेरे दिमाग में रहेगा। यह फिल्म का थीमैटिकल सीन था। एक और सीन है जब सचिन की लाश घोड़े पर लौटाई जाती है। और फिर बसंती वाला सीन, जब वह अपने घोड़े धन्नो से कहती है, 'चल धन्नो, आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है।' ये दृश्य अब भी दर्शकों को झकझोर देते हैं। असल में ये वो पल हैं, जहां दर्शकों की भावनाएं सीधे स्क्रीन से जुड़ती हैं। हाल ही में टोरंटो में हुई स्क्रीनिंग में इस सीन पर दर्शकों ने जबरदस्त रिस्पॉन्स दिया, सीटियां,तालियां, चीखें और मैं वहीं महसूस करता हूं कि शोले आज भी उतनी ही ताकतवर है जितनी तब थी।
'सरदार दो… लेकिन उनके कैमरे के आगे पूरी इंडस्ट्री ही नहीं, पूरी दुनिया झुक गई।”
‘जो डर गया, समझो मर गया’,
‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना’,
‘अब तेरा क्या होगा कालिया’,
'ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर'
ये डायलॉग्स सिर्फ सिनेमा के नहीं, हमारी संस्कृति और यादों का हिस्सा बन चुके हैं। इन अमर पलों के पीछे जिस शख्स की दृष्टि, सोच और जादू छुपा है, वो हैं, रमेश सिप्पी, वो फिल्ममेकर जिन्होंने ‘शोले’ से भारतीय सिनेमा को एक नई परिभाषा दी। बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी की नई इबारत लिखी। विभाजन की त्रासदी से लेकर सफलता की ऊंचाइयों तक, रमेश सिप्पी का सफर सिनेमा के बदलते दौर का साक्षी रहा है। तकनीक बदली, दर्शक बदले मगर 'शोले' का असर आज भी वैसा ही गहरा है। 'शोले' के हर किरदार को अजरामर करने वाले निर्देशक ने हर फ्रेम को इतिहास बनाया। और सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन नहीं, एक महाकाव्य में बदला। हाल ही में 'शोले' ने अपने पांच दशक पूरे किए, और इस मौके पर रमेश सिप्पी ने हमसे विस्तृत रूप से बात की, 'शोले' के सफर, महानायक की कास्टिंग, सिनेमा की कॉम्पलेक्सिटीज, कला की विरासत, नेशनल अवॉर्ड न मिलने के मलाल, AI की खूबियों -खामियों और भी कई मुद्दों पर दिल खोल कर बात की।
1. पचास साल में जब दो पीढ़ियां जवान होकर सेटल हो चुकी हैं, ऐसे में आज भी 'शोले' का जादू सर चढ़कर बोलता है। लेकिन क्या ये सच है कि जब फिल्म रिलीज हुई थी, तब शुरुआती दिनों में बॉक्स ऑफिस पर रिस्पॉन्स उम्मीद के मुताबिक नहीं था?
- (हल्की मुस्कान के साथ) नहीं… ऐसा सच नहीं था। बस कुछ अफवाहें फैली थीं। दर्शकों ने तो शुरुआत से ही फिल्म को अपनाया था, लेकिन ट्रेड के कुछ हलकों में बातें उठीं, वजह थी फिल्म का बजट। लोग कहने लगे, 'इतनी महंगी फिल्म बनेगी तो इंडस्ट्री बर्बाद हो जाएगी, इसका पैसा वापस आना नामुमकिन है।' असल में हमारी फिल्म का बजट एक करोड़ रुपये था और जब तक बनकर तैयार हुई, खर्च तीन करोड़ तक पहुंच गया था। जरा सोचिए, उन दिनों के हिसाब से ये बहुत बड़ी रकम थी। फिल्म बनाने में पूरे 300 दिन लगे, यानी तकरीबन एक साल। रिलीज के बाद पहला हफ्ता थोड़ा शांत रहा, दर्शकों की तरफ से कोई बड़ा रिएक्शन नहीं आया। दूसरे हफ्ते में एडवांस बुकिंग भी कमजोर रही।
ट्रेड वालों ने इसे पकड़कर अफवाह उड़ा दी, 'फिल्म नहीं चली।' उनका तर्क था, अगर फिल्म पसंद आती तो दर्शक दोबारा थिएटर में लौटते। लेकिन असलियत कुछ और ही थी। थिएटर मालिक खुद कह रहे थे, 'दूसरे हफ्ते में एडवांस बुकिंग नहीं होती, लोग सीधे करंट बुकिंग में टिकट लेते हैं।' और बिल्कुल वही हुआ। दूसरे हफ्ते से सिनेमा हॉल भरने लगे। तीसरे हफ्ते में लोग थिएटर में बैठकर डायलॉग रिपीट करने लगे, 'अरे ओ सांभा!' फिर वही अखबार, जिन्होंने शुरुआत में नकारात्मक बातें लिखी थीं, पांच हफ्ते बाद अपनी हेडलाइन बदल रहे थे, 'अब तक की सबसे बड़ी हिट!' उन्होंने अपनी गलती खुलेआम मानी। और यहीं से शुरू हुआ 'शोले' का वो सफर… जो आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है।
2. आज अमिताभ बच्चन इंडस्ट्री में ‘महानायक’ का दर्जा रखते हैं। लेकिन शोले में ‘जय’ के रोल के लिए उनकी कास्टिंग कैसे हुई थी?
-(मुस्कुराते हुए) देखिए, उस वक्त अमित जी उतने बड़े स्टार नहीं थे। उन्होंने 'आनंद' (1971) में बहुत शानदार काम किया था। वो एक बेहद सधा हुआ परफॉर्मेंस था। फिर 'बॉम्बे टू गोवा' में उनका एकदम मस्ती भरा, नाच-गाने वाला अंदाज दर्शकों को पसंद आया। लेकिन इसके बाद उनकी चार-पांच फिल्में लगातार फ्लॉप रहीं। उस समय तो यहां तक अफवाहें उड़ने लगीं कि उन पर कोई ‘जादू-टोना’ कर दिया गया है, तभी उनकी फिल्में नहीं चल रही हैं। जब 'सीता और गीता' की सक्सेस पार्टी चल रही थी, तो वहीं पर बातें शुरू हो गईं, 'इस लंबू को मत लेना।' लेकिन हमारे पास पहले ही तीन बड़े स्टॉलवार्ट थे- धरम जी, संजीव कुमार जी और हेमा मालिनी जी। साथ ही हमने जया भादुड़ी और अमजद खान को भी लिया। बाकी तो बस मेरा और राइटर का कन्विक्शन था कि ‘जय’ के किरदार के लिए अमित जी ही परफेक्ट रहेंगे। और वही हुआ। मेरा वो कन्विक्शन काम आया। बाकी तो आप जानते ही हैं…
3. आज तो सब जानते हैं कि 'शोले' के दौरान एक ओर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी का प्रेम प्रसंग चल रहा था, तो दूसरी ओर अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी की शादी हुई थी। उस वक्त सेट का माहौल कैसा था?
-(हल्की मुस्कान के साथ) देखिए, उस वक्त सेट पर काम ही सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। किसी भी स्टार ने कभी अपनी पर्सनल फीलिंग्स को शूटिंग के बीच में नहीं आने दिया। हां, ये सही है कि शूटिंग के बाद सभी अपने-अपने निजी समय में मिलते-जुलते रहे होंगे, लेकिन उसका फिल्म पर ज़रा भी असर नहीं पड़ा। सेट पर एकदम प्रोफेशनल माहौल रहता था। सभी कलाकार बहुत अनुशासन में काम करते थे। मैं जब भी किसी को सेट पर बुलाता, वो समय पर पहुंचते। धर्मेंद्र जी हों, अमित जी हों, सभी वक्त के पाबंद थे और अपना काम पूरे समर्पण से करते थे। इन प्रेम कहानियों की चर्चाएं बाहर जरूर होती थीं, लेकिन कैमरे के सामने सिर्फ किरदार जिंदा रहते थे, स्टार नहीं। शायद यही वजह थी कि फिल्म में कोई भी अड़चन नहीं आई और सेट का माहौल हमेशा खुशनुमा और प्रोफेशनल बना रहा।
4. आपकी फिल्म शोले इमरजेंसी के दौर में रिलीज़ हुई थी। उस वक्त सेंसर बोर्ड का रुख कैसा था?
-(गंभीर होकर) इमरजेंसी के दौरान पावर पूरी तरह से उनके हाथ में थी। तो हमें कुछ ऐसी बातें माननी पड़ीं, जो मैं व्यक्तिगत तौर पर नहीं मानना चाहता था। दरअसल, हमारी कहानी में संजीव कुमार का किरदार यानी ठाकुर अंत में अमजद खान के गब्बर को मार देता है। लेकिन सेंसर बोर्ड ने इसकी इजाजत नहीं दी। उनका कहना था ,'एक पुलिस अफसर अपने ही कानून के खिलाफ कैसे जा सकता है? उसके साथ कितना भी बुरा क्यों न हुआ हो, वह कानून अपने हाथ में नहीं ले सकता।' इसके अलावा कुछ वायलेंस के सीन भी सेंसर ने हटवा दिए। उस वक्त ये बहुत खला, क्योंकि वो दृश्य कहानी की भावनात्मक ताकत को बढ़ाते थे। लेकिन दिलचस्प बात ये रही कि इन कट्स के बावजूद फिल्म पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ा। दर्शकों ने फिल्म को उसी जुनून से अपनाया। और हां, मैं आपको ये भी बता दूं, वो सारे हटाए गए सीन अब फिल्म में दोबारा जोड़े जा रहे हैं। कुछ कहानियां वक्त के साथ और भी मजबूत होकर लौटती हैं।
5. 'शोले' को कई लोगों ने रीक्रिएट करने की कोशिश की। तो यहां तक कि 'रामगढ़ के शोले' ले आए। आप इसे कैसे देखते हैं?-
-देखिए, राम गोपाल वर्मा मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि वो 'रामगढ़ के शोले' बनाना चाहते हैं। मैंने उन्हें वही कहा, 'आपकी मर्जी, मैं आपको ये बनाने की सलाह नहीं दूंगा, मगर आपकी मर्जी।' मैंने कभी खुद इसका रीमेक बनाने की नहीं सोची। क्योंकि अगर मैं कभी बनाऊंगा, तो लोग सीधे तुलना करेंगे। लेकिन उन्होंने अपनी जिद और दृष्टि के साथ फिल्म बनाई, और फिर वही हुआ जो होना था। ठीक है, उनका अपना ख्याल था, उन्होंने किया, मैंने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की। लेकिन मैं खुद कभी ऐसा नहीं करूंगा। शोले जैसी फिल्म का अपना समय और अपने दर्शक होते हैं, और उसे दोबारा बनाने की कोशिश बस तुलना और जोखिम को जन्म देती है।
6. आपके करियर की बात करूं तो आपने 'अंदाज', 'सीता और गीता', 'शान', 'शक्ति', 'सागर' जैसी कई सफल फिल्में बनाईं, मगर आपके करियर की फिल्म 'शोले' ने हर किसी को ओवर पावर कर दिया, 'शोले' आपकी पहचान बन बैठी?
-अब मैं क्या करूं? मैंने अपनी हर फिल्म पर उतनी ही मेहनत की… मगर अब 'शोले' बन गई और बाकी नहीं बनी। फिर भी उन फिल्मों को भी दर्शकों ने पसंद किया। आज हम पचास साल बाद भी 'शोले' की बातें कर रहे हैं। ये कोई प्लानिंग नहीं थी कि फिल्म इतनी लंबी उम्र तक चलेगी। लेकिन जब ऐसा हुआ है, तो मैं दुखी तो नहीं हो सकता। (हंसते हुए) आज भी ताज्जुब होता है कि लोग फिल्म को इतनी पसंद करते हैं। जब लोग आज भी 'शोले' देखते हैं और दोबारा देखने की इच्छा रखते हैं, तो मुझे ये सबसे बड़ा कॉम्प्लिमेंट लगता है। ये साबित करता है कि फिल्म सिर्फ एक समय की नहीं, बल्कि पीढ़ियों के बीच अपनी जगह बनाने में कामयाब हुई है।
7. आज के तमाम दृश्य और डायलॉग्स लोगों के लिए आइकॉनिक बन चुके हैं। मगर पूरी फिल्म में आपके लिए कौन-सा सीन ऐसा था जिसने आपको सच में झकझोरा?
-कई सीन हैं, सबसे पहला सीन जो मुझे हमेशा याद रहेगा, वो वही है जब गब्बर आकर ठाकुर के पूरे परिवार का कत्ले-आम कर देता है। और उसके बाद जब ठाकुर गब्बर की डेन में जाता है, और उसके दोनों हाथ काट दिए जाते हैं। वह दृश्य हमेशा मेरे दिमाग में रहेगा। यह फिल्म का थीमैटिकल सीन था। एक और सीन है जब सचिन की लाश घोड़े पर लौटाई जाती है। और फिर बसंती वाला सीन, जब वह अपने घोड़े धन्नो से कहती है, 'चल धन्नो, आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है।' ये दृश्य अब भी दर्शकों को झकझोर देते हैं। असल में ये वो पल हैं, जहां दर्शकों की भावनाएं सीधे स्क्रीन से जुड़ती हैं। हाल ही में टोरंटो में हुई स्क्रीनिंग में इस सीन पर दर्शकों ने जबरदस्त रिस्पॉन्स दिया, सीटियां,तालियां, चीखें और मैं वहीं महसूस करता हूं कि शोले आज भी उतनी ही ताकतवर है जितनी तब थी।
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