नई दिल्ली: दिल्ली में बेघर होने का मतलब अक्सर पृष्ठभूमि में गुम हो जाना होता है, जबकि ऐसी हजारों महिलाएं हर दिन सम्मान और अस्तित्व के लिए संघर्ष करती हैं। राजधानी में एक गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट द्वारा की किए गए एक अध्ययन में उनकी अदृश्यता को लोगों के सामने लाने का प्रयास किया है। एनजीओ द्वारा की गई स्टडी में कई चौंकाने वाला आंकड़े सामने आए।
तेजी से बढ़ रहा आंकड़ा
'महिलाएं जेंडर रिस्पोंसिव शेल्टर होम की ओर' नामक रिपोर्ट ने महिलाओं की गंभीर की स्थिति का पता लगाया है। रिपोर्ट के अनुसार बेघर महिलाओं की जो संख्या 1971 में लगभग 3,491 थी, आज वो बढ़कर 32 हजार का आंकड़ा पार कर चुकी है। साथ ही सर्वे में पाया गया कि लगभग 98 प्रतिशत महिलाएं सरकारी स्कीमों से अनजान हैं।
अंतर को दिखाते हैं आंकड़े
सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट के डायरेक्टर सुनील कुमार अलेदिया ने कहा कि ये आंकड़े हमारी नीति और वास्तविकता के बीच के अंतर को उजागर करते हैं। उन्होंने कहा कि "शहरी बेघरों के लिए आश्रय (एसयूएच) योजना के लक्ष्य नेक हैं, लेकिन लिंग-संवेदनशीलता के मामले में यह विफल है। मासिक धर्म की गरीबी महिलाओं को भोजन और अपनी गरिमा के बीच चयन करने के लिए मजबूर करती है।
सुरक्षा को छीन लेते हैं असुरक्षित आश्रय स्थल
एनजीओ के निदेशक ने कहा कि अस्वच्छ और असुरक्षित आश्रय स्थल महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा को छीन लेते हैं, जबकि अप्रशिक्षित कर्मचारी अक्सर बहिष्कार की भावना को और गहरा कर देते हैं। इसके अलावा, सामाजिक सुरक्षा या कानूनी सहायता तक पहुँच का लगभग पूर्ण अभाव भी है
डूसिब चलाता है इतने शेल्टर होम
आपको बता दें कि दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डूसिब) 197 टिन से बने छोटे आश्रय स्थलों को चलाता है। जिनमें लगभग 16,476 लोग रहते हैं। लेकिन उनमें से केवल 17 ही हैं जो विशेष रूप से महिलाओं और लगभग 20 परिवारों के लिए हैं।
एनजीओ ने इतने लोगों का किया सर्वे
एनजीओ के डायरेक्टर ने बताया कि फरवरी और सितंबर 2025 के बीच हमारे एनजीओ ने आठ जिलों के 24 आश्रय स्थलों में सर्वे किया। एनजीओ ने प्रश्नावली की सहायता से 81 महिलाओं से बात की, 91 अन्य महिलाओं के साथ चर्चा की और र 18 अन्य महिलाओं का इंटरव्यू लेकर आंकड़े जुटाएं।
अध्ययन में आया सामने
एनजीओ ने अध्ययन में पाया कि सर्वेक्षण में शामिल आधी से ज्यादा महिलाएं 20-39 वर्ष की आयु की थीं। सामने आया कि 63% के पास आय का कोई स्रोत नहीं था । 21% प्रत्येक घरेलू काम या मंदिरों में या देखभाल करने वालों के रूप में छोटे-मोटे काम करती थी और 13% दैनिक मजदूरी पर निर्भर थीं जबकि 45% भीख मांगकर जीवित रहते थे। एक महिला ने कहा कि वे बेघर पैदा हुई थीं, आश्रय गृह उनका एकमात्र "घर" था
तेजी से बढ़ रहा आंकड़ा
'महिलाएं जेंडर रिस्पोंसिव शेल्टर होम की ओर' नामक रिपोर्ट ने महिलाओं की गंभीर की स्थिति का पता लगाया है। रिपोर्ट के अनुसार बेघर महिलाओं की जो संख्या 1971 में लगभग 3,491 थी, आज वो बढ़कर 32 हजार का आंकड़ा पार कर चुकी है। साथ ही सर्वे में पाया गया कि लगभग 98 प्रतिशत महिलाएं सरकारी स्कीमों से अनजान हैं।
अंतर को दिखाते हैं आंकड़े
सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट के डायरेक्टर सुनील कुमार अलेदिया ने कहा कि ये आंकड़े हमारी नीति और वास्तविकता के बीच के अंतर को उजागर करते हैं। उन्होंने कहा कि "शहरी बेघरों के लिए आश्रय (एसयूएच) योजना के लक्ष्य नेक हैं, लेकिन लिंग-संवेदनशीलता के मामले में यह विफल है। मासिक धर्म की गरीबी महिलाओं को भोजन और अपनी गरिमा के बीच चयन करने के लिए मजबूर करती है।
सुरक्षा को छीन लेते हैं असुरक्षित आश्रय स्थल
एनजीओ के निदेशक ने कहा कि अस्वच्छ और असुरक्षित आश्रय स्थल महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा को छीन लेते हैं, जबकि अप्रशिक्षित कर्मचारी अक्सर बहिष्कार की भावना को और गहरा कर देते हैं। इसके अलावा, सामाजिक सुरक्षा या कानूनी सहायता तक पहुँच का लगभग पूर्ण अभाव भी है
डूसिब चलाता है इतने शेल्टर होम
आपको बता दें कि दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डूसिब) 197 टिन से बने छोटे आश्रय स्थलों को चलाता है। जिनमें लगभग 16,476 लोग रहते हैं। लेकिन उनमें से केवल 17 ही हैं जो विशेष रूप से महिलाओं और लगभग 20 परिवारों के लिए हैं।
एनजीओ ने इतने लोगों का किया सर्वे
एनजीओ के डायरेक्टर ने बताया कि फरवरी और सितंबर 2025 के बीच हमारे एनजीओ ने आठ जिलों के 24 आश्रय स्थलों में सर्वे किया। एनजीओ ने प्रश्नावली की सहायता से 81 महिलाओं से बात की, 91 अन्य महिलाओं के साथ चर्चा की और र 18 अन्य महिलाओं का इंटरव्यू लेकर आंकड़े जुटाएं।
अध्ययन में आया सामने
एनजीओ ने अध्ययन में पाया कि सर्वेक्षण में शामिल आधी से ज्यादा महिलाएं 20-39 वर्ष की आयु की थीं। सामने आया कि 63% के पास आय का कोई स्रोत नहीं था । 21% प्रत्येक घरेलू काम या मंदिरों में या देखभाल करने वालों के रूप में छोटे-मोटे काम करती थी और 13% दैनिक मजदूरी पर निर्भर थीं जबकि 45% भीख मांगकर जीवित रहते थे। एक महिला ने कहा कि वे बेघर पैदा हुई थीं, आश्रय गृह उनका एकमात्र "घर" था
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