नई दिल्ली: दोस्त सिर्फ गांव-मोहल्ले या स्कूल-कॉलेज में ही नहीं बनते। वे किसी दुकान, फैक्ट्री, ऑफिस या बस-ट्रेन आदि में भी बन सकते हैं। कई बार यह दोस्ती उस समय ही खत्म हो जाती है जब दुकान, फैक्ट्री आदि को छोड़ दिया जाता है। लेकिन शैलेंद्र कुमार (Salinder Kumar) और राजेश गोस्वामी (Rajesh Goswami) की दोस्ती कुछ अलग थी। वे दोनों हरियाणा की एक टेक्सटाइल फैक्ट्री में काम करते थे। लेकिन आज दोनों कारोबार में भी साथी हैं। वे पर्ल्स फार्मिंग (मोतियों की खेती) करते हैं। आज वे अपने इस कारोबार से जबरदस्त कमाई कर रहे हैं।   
   
फैक्ट्री की नौकरीशैलेंद्र और राजेश सालों से फैक्ट्री में काम कर रहे थे। उनकी कमाई इतनी ही थी कि बस गुजारा हो पाता था। साल 2013 की बात है। एक दिन काम के बीच में राजेश इंटरनेट पर कुछ देख रहे थे। तभी उसकी नजर एक अनोखे विज्ञापन पर पड़ी। यह विज्ञापन था भुवनेश्वर (ओडिशा) स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवॉटर एक्वाकल्चर (CIFA) के पर्ल फार्मिंग यानी मोती की खेती के ट्रेनिंग प्रोग्राम का। राजेश ने तुरंत शैलेंद्र को बुलाया। शैलेंद्र ने हैरानी से पूछा, 'मोती की खेती? ये क्या होती है?' उन्होंने ऐसा कुछ पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन यह आइडिया उनके मन में बैठ गया। दोनों दोस्त पैसों की आजादी का सपना देखते थे और यह मौका उन्हें अपनी किस्मत बदलने का एक रास्ता लगा।
      
ट्रेनिंग करने का फैसलाअपने बॉस खुद बनने के ख्याल से प्रेरित होकर, शैलेंद्र और राजेश ने इस नए काम को शुरू करने का साहस जुटाया। उन्होंने CIFA के भुवनेश्वर में होने वाले दो दिन के ट्रेनिंग कोर्स में दाखिला लेने का फैसला किया। इस फैसले पर उनके दोस्तों और परिवार वालों ने चिंता जताई। उन्होंने पूछा कि फैक्ट्री की नौकरी करते हुए खेती कैसे संभालेंगे? अगर फेल हो गए तो क्या होगा? लेकिन शैलेंद्र और राजेश के लिए लगातार पैसों की तंगी का डर, अनजाने रास्ते पर चलने के डर से कहीं ज्यादा बड़ा था।
   
काम की कला और विज्ञान सीखीट्रेनिंग में उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला। वहां उन्हें मोती की खेती की बारीकियों के बारे में प्रैक्टिकल जानकारी दी गई। शैलेंद्र बताते हैं, 'हमने सीखा कि पानी की क्वालिटी कैसी होनी चाहिए और सीपियों (mussels) को पालकर मोती कैसे बनाए जाते हैं। यह सब बहुत ध्यान से करने वाला काम था।' वे हर छोटी से छोटी बात को बड़े ध्यान से सीख रहे थे। उन्हें इस काम की कला और विज्ञान दोनों समझ आ रहे थे।
   
पानी में 'सोना' उगाना सीखाशैलेंद्र के लिए मोती किसी सोने से कम नहीं थी। ओडिशा से ट्रेनिंग लेकर लौटने के बाद दोनों दोस्त फैक्ट्री में काम करते रहे और साथ-साथ अपनी मोती की खेती का बिजनेस भी शुरू कर दिया। उनका प्लान सीधा था- छोटे पैमाने पर शुरुआत करो, सीखते जाओ और जो सीखा है उसे इस्तेमाल करो।
   
शुरुआत में 3.5 लाख का निवेशशैलेंद्र के घर पर छह सीमेंट के टैंक बनाए गए। हर टैंक 10 फीट लंबा और 10 फीट चौड़ा था। यहीं पर उन्होंने अपनी पहली सीपियां रखीं। उन्होंने करीब 3.5 लाख रुपये का निवेश किया। इसमें अच्छी क्वालिटी की सीपियां खरीदने का खर्च भी शामिल था, जिन्हें उन्होंने ओडिशा के तटीय इलाकों से सीपीयां मंगवाई। उन्होंने खास तौर पर सुनहरे-भूरे रंग की सीपियों को चुना, क्योंकि उनसे अच्छे मोती मिलते हैं।
   
कितनी हो रही कमाई?फार्म शुरू करने के एक साल बाद शैलेंद्र और राजेश ने अपनी नौकरियां छोड़ दीं और सोच-समझकर जोखिम उठाते हुए फुल-टाइम एंटरप्रेन्योर बन गए। 13 महीनों के बाद उनका मोती फार्म बहुत अच्छा चलने लगा। मोती की खेती की अपनी समझ बढ़ने के साथ ही, बिजनेस को बढ़ाना अगला कदम था। दोनों दोस्तों ने अपने काम का दायरा बढ़ाया। उन्होंने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और दमन में भी नए फार्म खोले, जिनमें एक लाख सीपियां थीं। अनजानी राह पर उनका यह कदम एक बड़े बिजनेस में बदल गया। उनके ब्रांड 'जय श्री पर्ल फार्मिंग' के तहत उनका टर्नओवर 1 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। वे अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी मोती बेचते हैं।
   
  
फैक्ट्री की नौकरीशैलेंद्र और राजेश सालों से फैक्ट्री में काम कर रहे थे। उनकी कमाई इतनी ही थी कि बस गुजारा हो पाता था। साल 2013 की बात है। एक दिन काम के बीच में राजेश इंटरनेट पर कुछ देख रहे थे। तभी उसकी नजर एक अनोखे विज्ञापन पर पड़ी। यह विज्ञापन था भुवनेश्वर (ओडिशा) स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवॉटर एक्वाकल्चर (CIFA) के पर्ल फार्मिंग यानी मोती की खेती के ट्रेनिंग प्रोग्राम का। राजेश ने तुरंत शैलेंद्र को बुलाया। शैलेंद्र ने हैरानी से पूछा, 'मोती की खेती? ये क्या होती है?' उन्होंने ऐसा कुछ पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन यह आइडिया उनके मन में बैठ गया। दोनों दोस्त पैसों की आजादी का सपना देखते थे और यह मौका उन्हें अपनी किस्मत बदलने का एक रास्ता लगा।
ट्रेनिंग करने का फैसलाअपने बॉस खुद बनने के ख्याल से प्रेरित होकर, शैलेंद्र और राजेश ने इस नए काम को शुरू करने का साहस जुटाया। उन्होंने CIFA के भुवनेश्वर में होने वाले दो दिन के ट्रेनिंग कोर्स में दाखिला लेने का फैसला किया। इस फैसले पर उनके दोस्तों और परिवार वालों ने चिंता जताई। उन्होंने पूछा कि फैक्ट्री की नौकरी करते हुए खेती कैसे संभालेंगे? अगर फेल हो गए तो क्या होगा? लेकिन शैलेंद्र और राजेश के लिए लगातार पैसों की तंगी का डर, अनजाने रास्ते पर चलने के डर से कहीं ज्यादा बड़ा था।
काम की कला और विज्ञान सीखीट्रेनिंग में उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला। वहां उन्हें मोती की खेती की बारीकियों के बारे में प्रैक्टिकल जानकारी दी गई। शैलेंद्र बताते हैं, 'हमने सीखा कि पानी की क्वालिटी कैसी होनी चाहिए और सीपियों (mussels) को पालकर मोती कैसे बनाए जाते हैं। यह सब बहुत ध्यान से करने वाला काम था।' वे हर छोटी से छोटी बात को बड़े ध्यान से सीख रहे थे। उन्हें इस काम की कला और विज्ञान दोनों समझ आ रहे थे।
पानी में 'सोना' उगाना सीखाशैलेंद्र के लिए मोती किसी सोने से कम नहीं थी। ओडिशा से ट्रेनिंग लेकर लौटने के बाद दोनों दोस्त फैक्ट्री में काम करते रहे और साथ-साथ अपनी मोती की खेती का बिजनेस भी शुरू कर दिया। उनका प्लान सीधा था- छोटे पैमाने पर शुरुआत करो, सीखते जाओ और जो सीखा है उसे इस्तेमाल करो।
शुरुआत में 3.5 लाख का निवेशशैलेंद्र के घर पर छह सीमेंट के टैंक बनाए गए। हर टैंक 10 फीट लंबा और 10 फीट चौड़ा था। यहीं पर उन्होंने अपनी पहली सीपियां रखीं। उन्होंने करीब 3.5 लाख रुपये का निवेश किया। इसमें अच्छी क्वालिटी की सीपियां खरीदने का खर्च भी शामिल था, जिन्हें उन्होंने ओडिशा के तटीय इलाकों से सीपीयां मंगवाई। उन्होंने खास तौर पर सुनहरे-भूरे रंग की सीपियों को चुना, क्योंकि उनसे अच्छे मोती मिलते हैं।
कितनी हो रही कमाई?फार्म शुरू करने के एक साल बाद शैलेंद्र और राजेश ने अपनी नौकरियां छोड़ दीं और सोच-समझकर जोखिम उठाते हुए फुल-टाइम एंटरप्रेन्योर बन गए। 13 महीनों के बाद उनका मोती फार्म बहुत अच्छा चलने लगा। मोती की खेती की अपनी समझ बढ़ने के साथ ही, बिजनेस को बढ़ाना अगला कदम था। दोनों दोस्तों ने अपने काम का दायरा बढ़ाया। उन्होंने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और दमन में भी नए फार्म खोले, जिनमें एक लाख सीपियां थीं। अनजानी राह पर उनका यह कदम एक बड़े बिजनेस में बदल गया। उनके ब्रांड 'जय श्री पर्ल फार्मिंग' के तहत उनका टर्नओवर 1 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। वे अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी मोती बेचते हैं।
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